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15 नवंबर, 2010

किले में कविता :-'जब ठिठुरा किला पूरी रात



  पूछा किसी ने बिछोने का 
ओढ़ाने की सोची किसी ने आज
जब ठिठुरा किला पूरा
शहर में रातभर
पिछले दिनों की मावठ का असर है
ठूंठ से लगे एक बार तो मकान
जो बने हैं इमारतों के आजूबाजु
एकदम बेचिंता बेपरवाह
उमस थी तो पढ़ते थे नहाने
मारते डुबकियां गरजवाली टांगों से
महल से लगे तालाब में
उछलते थे लोग
आज शांत है तालाब
पानी भी ठहरा है
ठिठूरे घाट के पत्थर देर तक चुप थे
इस गोधूली फिर मैं
किले को महसूसता रहा
देर तक वो शाम गुज़री
एक महल के बाजू खड़े हुए 
देखे कुत्ते बस्ती के चुपचाप
गिलहरियाँ आज थी शांत
चुप्पियाँ इनकी तोड़ने आया कोई
ढांककर मुंह अपना बैठे रहे
गुदड़ियों में घुसे लोग
अनजाने से लगे
ठिठूरे भले भगवान
रातभर मंदिर में
झांका इधर किसी ने
 खड़े थे आज भी दु;खी
मगर आत्मसम्मान से लथपथ 
महल के चरमराते किंवाड़
हालिया लगी सलाखों में
भिंची खिड़कियाँ तक ठिठुर गई
आज तनकर खींची दिखी 
तारों वाली बाड़ भी बगीचे में 
जो मजबूरन बनी है डोर सी 
महल और बस्ती के बीच
सुबकता रहा देर तलक
कहे तो किसे,सुने तो कौन
आँगन बिखरे पत्थर तक ठिठुरे
ठिठुरे बेशर्म लोग तनिक भी
सिकुड़ती रही इमारतें
रही मगर चुपचाप एकदम गूंगी
शिवलिंग भी ठिठुरा मंदिर में
नंदी तक बक्शे गए
हवा के थपेड़ों से झगड़ता
झंडा भला कब तक ठहरता
फट ही गया इंतज़ार में लहराते हुए
आया कोई बस्ती से इधर
मावठ में ठिठुरता रहा
महल रातभर
अकेला एकदम अकेला
(ये शब्दरचना चित्तौड़ किले में मावठ के बाद की एक शाम कुछ वक्त बिताने पर मन में उभरे विचारों पर बूनी है )

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