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25 जुलाई, 2010

कविता''धुंधली यादों से''

धुंधली यादों से
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धुंधली यादों से झांकता है
नज़ारा कोई अपना, कभी पड़ौस का 
कुछ पढ़े,कुछ बचे हुए 
बांचता हूँ आज फिर से
ख़त पुराने,कुछ लिखे,कुछ अलिखे 
यादों ही  में दिखा था कहीं
किताबों के हिस्से एक पूरा कमरा घर का
तब कम ज़हरीली थी 
नई और चिकनी परम्पराएं
फुरसत,आनंद,अनुभूति 
जैसे शब्द जीवंत थे 
ईमान,अपनापन हृष्टपुष्ट थे
बिना दिखावे के बाबूजी डालते थे
चिड़ी-कबूतर को दाने
देते थे 
गाय,कुत्ते को तवे की पहली रोटी 
घंटी,झालर,शंख और नंगाड़ा मंदिर का
खुद बजाते रहे बरसों भक्तजन
धुंधली यादों का 
एक कम धुंधला नज़ारा
मिलों चलकर मिलने आते थे मेहमान
अटी रही राहें बातूनी राहगीरों से 
पड़ती थी बीच-बीच में
प्याऊ पर पानी पिलाती अनजान औरतें
दिल दुखता था देखकर वो होटल
जहां किले में कभी 
महल हुआ करता था
डूबते,तैरते और कूदते बच्चों के झुण्ड 
जहां नदी बहा करती थी कभी शहर में
बाबा वाकई बाबाजी हुआ करते थे
आश्रम कुटिया में चला करते थे
चाहता हूँ बस यादें वो धुंधली
 धुंधली ही बनी रही
देख तब से अब तक का ये बदलाव
रोशनी चले जाने का डर है मुझे
काई कुछ ज्य़ादा ही चिकनी हो पड़ी है
फिसल जाने का डर है
काट देना चाहता हूँ 
सारा जीवन यादों में ही
यादें भले धुंधली ही सही 
 
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